ज्वाला देवी मंदिर : यहां मूर्ति नहीं, बल्कि नौ ज्योति की होती है पूजा
ज्वाला देवी (Jwala Devi Mandir) का मंदिर हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा (Kangra) जिले में ज्वालामुखी शहर में स्थित है। यह धर्मशाला से करीब 55 किलोमीटर दूर है। यह पवित्र स्थान मां भगवती के 51 शक्तिपीठों में काफी प्रसिद्ध है। यहां माता के ज्योति रूप में दर्शन होते हैं। यहां किसी मूर्ति की नहीं बल्कि बिना तेल और बाती की जल रहीं नौ ज्योति की आराधना की जाती है। इसलिए इस मंदिर को जोता वाली मंदिर या ज्वालामुखी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यहां पृथ्वी के गर्भ से निकल रहीं 9 ज्वालाओं का आज तक कोई रहस्य नहीं जान पाया। मुगल शासक अकबर और औरंगजेब ने इन्हें बुझाने का प्रयास किया, पर वे ऐसा करने में विफल रहे। अंग्रेजों के समय भी ज्वाला के स्रोत जानने के बारे में बहुत प्रयास हुए, पर इसका पता नहीं लगाया जा सका। अखंड जल रही ज्योति को आखिर ऊर्जा कहां से मिल रही है, भूगर्भ वैज्ञानिक आज तक इसकी जानकारी नहीं कर सके हैं।
शक्तिपीठ के बारे में
एक पौराणिक कथा के अनुसार शिव के ससुर राजा दक्ष शिव को अपने बराबर का नहीं समझते थे। एक बार उन्होंने यज्ञ का आयोजन किया और जानबूझकर शिव और सती को आमंत्रित नहीं किया। जब यह बात सती को पता चली तो उन्होंने सोचा कि पिता के आयोजन में बुलावे की क्या जरूरत। वह खुद ही पहुंच गईं। यज्ञ में पहुंचकर उन्होंने देखा कि यहां शिव का अपमान हो रहा है। वह यह सहन नहीं कर सकीं और हवन कुंड में कूद गईं। भगवान शिव को यह बात जब पता चली तो वह आए और सती के शरीर को हवन कुंड से निकालकर तांडव करने लगे। इससे पूरे ब्रह्मांड में हाहाकार मच गया। इस संकट से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर को अपने सुदर्शन चक्र से 51 भागों में बांट दिया। जो अंग जहां गिरा, वहीं पर शक्ति पीठ बन गया। ज्वालामुखी नगर में सती माता की जीभ गिरी थी। मंदिर के अंदर स्थित माता की नौ ज्योतियों को महाकाली, अन्नपूर्णा, हिंगलाज, चंडी, विंध्यवासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अम्बिका और अंजीदेवी के नाम से जाना जाता है। ज्वालामुखी मंदिर के ऊपर सोने की परत चढ़ी हुई है।
मंदिर का रहस्य
ज्वाला जी मंदिर के बारे में एक पौराणिक कथा प्रचलित है। इसके अनुसार गोरखनाथ ज्वाला देवी के एक परम भक्त थे। वह हमेशा माता के भक्ति-भाव में लीन रहते थे। एक बार भूख लगने पर उन्होंने माता से कहा कि मां पानी गर्म करके रखना मैं भिक्षा लेकर आता हूं। इसके बाद गोरखनाथ लौटे ही नहीं। कहा जाता है कि यह वही ज्वाला है, जिसे मां ने जला रखा था। मंदिर के पास स्थित एक कुंड में आज भी भाप निकलती हुई प्रतीत होती है। ऐसी मान्यता है कि कलियुग के अंत में गोरखनाथ जरूर वापस लौटकर आएंगे और तब तक यह ज्वाला जलती रहेगी। यहां पास में ही एक मंदिर है, जिसे गोरख डिब्बी के नाम से जाना जाता है।
मंदिर का निर्माण
ज्वाला जी मंदिर का शुरुआती निर्माण राजा भूमि चंद ने करवाया था। बाद में महाराजा रणजीत सिंह और राजा संसार चंद ने वर्ष 1835 में ज्वालामुखी मंदिर का सम्पूर्ण निर्माण करवाया। ज्वालामुखी मंदिर के करीब 5 किलोमीटर के दायरे में नगिनी माता और रघुनाथ जी का मंदिर है। रघुनाथ मंदिर का निर्माण पांडवों द्वारा किया गया था।
ज्योति बुझाने की कोशिश
इतिहास में दर्ज है कि अकबर ने ज्वाला जी की ज्योति को बुझाने के लिए कई बार प्रयास किया पर बुझा नहीं पाया। उसने यहां नहर खुदवाने की कोशिश की, पर वह कामयाब नहीं हुआ। आज भी मंदिर की दाहिनी ओर यह नहर दिख जाएगी। उसने लोहे के तवों से भी मां की ज्योति को दबाने की कोशिश की, पर वह उसे पिघलाते हुए बाहर निकल गई थी। अकबर अंत में नतमस्तक होकर माता को सोने की छत्र चढ़ाने के लिए पहुंचा, पर माता ने उसे स्वीकार नहीं किया। यह छत्र गिरकर किसी और धातु में बदल गया।
मुगल शासक औरंगजेब ने ज्वाला मां की ज्योति को नष्ट करने के लिए अपने सैनिकों को भेजा, पर मां के चमत्कार से मधुमक्खियों ने उन पर हमला कर दिया। फिर सारे सैनिक जान बचाकर वापस भागने को मजबूर हो गए। इसके बाद औरंगजेब ने यहां आने की योजना त्याग दी।
कब जाएं दर्शन के लिए
ज्वालामुखी में हर वर्ष मार्च और अप्रैल तथा सितंबर-अक्टूबर के दौरान नवरात्र उत्सव पर मेले लगते हैं। इस दौरान यहां काफी भीड़ होती है। इस समय दर्शन करने आप भी जा सकते हैं। यहां सुबह 5 बजे से रात 8 बजे तक दर्शन कर सकते हैं।
कैसे जाएं और कहां ठहरें
ज्वाला देवी मंदिर पहुंचने के लिए आप दिल्ली और चंडीगढ़ से बस पकड़ सकते हैं। पठानकोट से ट्रेन पकड़कर भी पालमपुर पहुंचा जा सकता है। वहां से आपको ज्वाला जी के लिए बस और कार मिल जाएगी। ज्वाला जी से नजदीकी एयरपोर्ट गगल में है। यहां से इसकी दूरी करीब 46 किलोमीटर है। ज्वाला जी में आसपास कई होटल हैं, यहां आप ठहर सकते हैं।
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