ठकुराइन

कहानी

‘अब चल बसें तो ही अच्छा है। 20 साल से जिंदगी को गोबर कर रखा है। हर पल उठना-बैठना, सोना-जगना तक दुश्वार हो गया है। बस समझो काका, खुलकर जी भी नहीं पा रहे।’ ठकुराइन का जिक्र क्या आया राधेश्याम जैसे अपने दुखों की पोटली खोलकर ही बैठ गया। वह आगे अभी और भी कुछ कहता कि रामजी काका बीच में ही टोक पड़े-‘बस करो, राधेश्याम ठकुराइन इतनी बुरी नहीं हैं। तुम्हारी तो रिश्ते में दादी लगती हैं, तुम्हें तो उनके बारे में शुभ-शुभ बोलना चाहिए। पुजारी का बेटा आज ठकुराइन को देखने अस्पताल गया था। बता रहा था कि वह अब चल-फिर भी नहीं पा रही हैं। डॉक्टर ने उन्हें बोला है कि दवा से ज्यादा उनको दुआ की जरूरत है।’

‘नौवीं बार अस्पताल से वह फिर सही-सलामत लौट आएंगी, देख लेना काका। फिर आप खुद ही कहोगे कि मेरी बात सच हुई।’ राधेश्याम ने भविष्यवाणी की।

काका समझ गए थे कि ठकुराइन के बारे में राधेश्याम की सोच बदलना मुश्किल ही नहीं, शायद असंभव सा है। ‘यह तेरी नहीं, तेरी मॉडर्न पढ़ाई का दोष है राधेश्याम, जो तुम अपने बड़े के बारे में ऐसा सोचते हो।’ ऐसा कहकर रामजी काका गांव के बाहरी कुएं की तरफ बढ़ने ही वाले थे कि एक दुबली-पतली गाय आकर राधेश्याम के दरवाजे पर खड़ी हो गई। शायद वह किसी का बाट जोह रही थी। राधेश्याम को समझते देर नहीं लगी कि वह गाय रोटी का निवाला लेने आई थी, जो उसे रोज ठकुराइन खिलाती आ रही थीं। रामजी काका घर के अंदर गए और राधेश्याम की मां से विनती कर दो रोटी लेकर आए और गाय को खिला दिया।

‘मैं ऐसे बकवास के चक्करों में नहीं पड़ता काका’, राधेश्याम बोलता जा रहा था-‘गाय को रोटी खिलाने से कोई पुण्य-वुण्य नहीं होता। हर कोई अपनी किस्मत लेकर आता है। जो उसके हिस्से में होगा, वह मिल ही जाएगा।’ काका इस विषय पर राधेश्याम से बहस के मूड में नहीं थे। उसकी बात को अनसुना कर आगे बढ़ गए।

उदास गायें

धुंधलका अब थोड़ा गहराने लगा था। लगभग सभी पशु चारागाह से अपने खूंटे पर लौट चुके थे। कुएं पर भीड़ बढ़ गई थी। कोई अपने पशुओं के लिए गागर में पानी भरकर ले जा रहा था तो कोई खुद के पीने के लिए।

‘कहां से आ रहे हो रामजी काका’, दशरथ ने आवाज लगाई। गांव के छोटे बच्चे हों या बड़े, सभी रामजी को रामजी काका ही कहकर बुलाते थे। 1975 की बाढ़ में रामजी की समझदारी से ही बहुत से लोगों को बर्बाद फसलों का मुआवजा मिला था। उन्होंने ही निरीक्षण करने आए जिलाधिकारी के सामने ऐसे तर्क रखे थे कि फसल बर्बादी का सबूत भी नहीं देना पड़ा और मुआवजा मिल गया, नहीं तो गांव में कोई भी किसान बाढ़ के समय खेत में फसल लगी होने का ठोस प्रमाण नहीं दे पा रहा था। तब रामजी की उम्र मात्र 30 साल थी, पर उनकी इस समझदारी की वजह से ही सभी उनको काका बुलाने लगे।

‘राधेश्याम के घर से आ रहे हैं, दशरथ। सोचा थोड़ा ठकुराइन का हाल-चाल जानकर आते हैं। कुएं पर थोड़ा और पहले आ गए होते, वहीं एक गाय को रोटी खिलाने लगे। इसलिए मुझे थोड़ी देर हो गई।’ रामजी काका लंबी सांस भरते हुए बोले।

‘एक गाय को रोटी देने से क्या होता है काका, गांव की सभी लावारिस गायों पर जैसे दुखों का पहाड़ टूट पड़ा है। पिछले 10 दिन से जब से ठकुराइन अस्पताल में भर्ती हैं, उन्हें रोटी और चारा खिलाने वाला कोई नहीं है। वो सुबह-शाम रोज राधेश्याम का दरवाजा झांककर चली जाती हैं, कोई उन्हें रोटी और चारा नहीं खिलाता। बिना खाये-पीये उन लावारिस गायों की स्थिति अब बिगड़ती जा रही है। वो हर रोज ठकुराइन के दरवाजे पर आकर उनकी बाट जोहकर चली जाती हैं। मैंने अपनी आंखों से देखा है। राधेश्याम तो क्या, उसके घर के बाकी लोग भी ठकुराइन की तरह क्यों नहीं हैं। वो भी ठकुराइन की तरह बेचारी गायों को रोटी और चारा खिला सकते थे।’ दशरथ की यह लंबी बात सुनते-सुनते रामजी काका बीच में ही बोल पड़े-मैं तो पिछले 30 वर्षों से ठकुराइन को बेसहारा गायों को रोटी और चारा खिलाते देखता आ रहा हूं। सुबह-शाम ठाकुर जी की पूजा-आरती और गायों को चारा खिलाना वह कभी नहीं भूलीं। खुद भोजन करने का ध्यान न रहा, पर गायों को चारा जरूर खिलाया। पांच वर्ष पहले मैंने एक बार ठकुराइन से पूछा भी कि ऐसा क्यों करती हैं तो उन्होंने मेरी बात टाल दी थी। सिर्फ इतना कहा था-‘समय एक दिन खुद बताएगा बेटा’।

प्रतीकात्मक तस्वीर। (साभार : एआई)

कड़वा सच

कल रात से शुरू बारिश आज सुबह होने के बाद भी रुकने का नाम नहीं ले रही। आसमान में काले बादल और उनकी गड़गड़ाहट थम नहीं रही। हर कोई अपने घर में दुबका पड़ा है। अब दोपहर हो चली पर बारिश का जोर अब भी वैसे ही है। अपने बरामदे में चारपाई पर लेटे रामजी काका को गली में कुछ आहट सी हुई। दरवाजे से झांककर देखा तो कुछ लोग छाता लेकर प्रधान जी के दरवाजे की तरफ दौड़ते दिखाई दिए। कुछ जरूरी मामला समझते हुए बिना किसी से पूछे वो खुद भी छाता लेकर प्रधान जी के दरवाजे पर पहुंच गए।

उनके पहुंचते ही प्रधान जी बोले, ‘आओ काका, हम लोग तुम्हें ही बुलाने जा रहे थे। रस्तेपुर के स्वास्थ्य केंद्र से टेलीफोन आया था कि ठकुराइन की तबीयत बहुत ज्यादा खराब है। डॉक्टर कह रहे थे कि ठकुराइन के घरवालों को बोल दीजिए कि वे उन्हें अस्पताल से लेकर जाएं और सेवा करें। अब ऊपर वाला ही कोई चमत्कार करे तो वो बच सकती हैं।

‘प्रधान जी, फिर आपने राधेश्याम और ठकुराइन के घरवालों को क्यों नहीं बुलवाया अस्पताल जाने के लिए।’ रामजी काका बोले।

‘राधेश्याम को खबर करवाई थी’, प्रधान जी ने कहा, ‘पर उसने अस्पताल जाने से मना कर दिया। उसने कहा कि उसके घर से कोई नहीं जाएगा ठकुराइन को लेने।
क्या कहें, इन सबकी मति मारी गई है। वो कह रहे हैं कि जीते जी ठकुराइन ने उनके परिवार के लिए कुछ नहीं किया। सिर्फ ठाकुर जी और गायों की सेवा में हमेशा व्यस्त रहीं। घर में बेसहारा-बीमार गायों के गोबर से उनके घर का वातावरण खराब हो गया था। उनके अनुसार उनकी अधिकतर धन-दौलत इन गायों पर खर्च हो गई। उल्टे उन्हें भी ऐसा करने के लिए कहती रहीं।’ प्रधान जी दरवाजे पर इकट्ठा गांव के लोगों को बता रहे थे।

‘गांव की बड़ाई इसी में है कि हम सब तत्काल अस्पताल पहुंचें।’ उपस्थित भीड़ ने एक सुर में काका की इस बात में हां में हां मिलाई।

पुरानी जीप का ब्रेक लगना था कि फटाफट सब उतर पड़े और अस्पताल की ओर दौड़े। डॉक्टर अब ड्यूटी से लौट ही रहे थे कि प्रधान जी पर उनकी नजर पड़ी। प्रधान जी कुछ बोलते इससे पहले डॉक्टर बोल पड़े-‘देर हो गई प्रधान जी, हम ठकुराइन को नहीं बचा पाए। आपने ठकुराइन के इलाज के लिए जो रुपये भेजे थे, उसमें से काफी रकम अभी बची हुई है। वो ले लीजिएगा। अस्पताल की सारी औपचारिकता मैंने पहले ही पूरी करवा दी है, आप अंदर जाकर वहां से ठकुराइन का पार्थिव शरीर ले जा सकते हैं। हां, मरते समय ठकुराइन ने बोलकर एक कागज पर कुछ लिखवाया था। उनकी आखिरी इच्छा थी कि उसे गांव की पंचायत में राधेश्याम की उपस्थिति में पढ़कर सुनाया जाए। उस कागज को भी जरूर लेते जाइएगा।

वर्षों का रहस्य

शाम के सात बजे चुके थे। परंपरा के अनुसार ठकुराइन का अंतिम संस्कार अब अगले दिन सूर्य उगने के साथ होना तय किया गया। इससे पहले पंचायत में ठकुराइन का पत्र (कागज) खोला गया।

प्रधान जी पत्र को पढ़ रहे थे-

‘तुम सब पूछते थे न कि मैं दिन-रात गायों और ठाकुर जी की सेवा में क्यों लगी रहती हूं। राधेश्याम यह पूछकर मुझे खरी-खोटी भी सुनाता था। मैं हमेशा कहती थी कि वक्त आने पर मैं बताऊंगी। अब वक्त आ गया है।

यह उन दिनों की बात है जब राधेश्याम 3 साल का था। उसकी मां उसे मेरे पास छोड़कर अपने मायके गई हुई थी। राधेश्याम को 105 डिग्री बुखार हुआ और वह उतरने का नाम नहीं ले रहा था। मैं और उसके दादा जी उसे रस्तेपुर के अस्पताल ले गए। कुछ देर इलाज के बाद डॉक्टर ने जवाब दे दिया और कहा कि अब इस बालक का बचना मुश्किल है। तीन दिन तक हम राधेश्याम को लेकर अलग-अलग अस्पताल में भटकते रहे, पर हर जगह से निराशा हाथ लगी। मरता क्या न करता। हम 15 कोस दूर रहमानपुर गांव पहुंचे। वहां एक सिद्ध संत कुछ दिन से गांव में पहुंचे थे। उन्होंने एक जड़ी राधेश्याम को पिलाने को दी। फिर उन्होंने कहा-‘यह जड़ी बच्चे को बचा सकती है, पर लंबी जिंदगी नहीं दे सकती। अगर इस बच्चे की लंबी जिंदगी चाहती हो तो जैसा मैं कहता हूं, वैसा करो, पर इस काम का ढिंढोरा मत पीटना।’

उस दिन से मैं वापस घर आई और जिंदगीभर वही करती रही, जैसा कि मुझे संत ने बताया था। समय के साथ राधेश्याम के दादा चल बसे। उनके बाद तो शायद मुझे मेरे काम में साथ देने वाला कोई नहीं बचा, पर फिर भी मैं लगी रही।

अब तक मैंने यह बात किसी से नहीं बताई पर आज इसलिए बता रही हूं कि मुझे चिंता है कि मेरे बाद उन बेसहारा गायों का क्या होगा ? मेरी बात सुनकर शायद उनका कोई सहारा बन जाए।

बस यही मेरी आखिरी इच्छा थी !!

नई सुबह

अगली सुबह गांव में एक नई पहल लेकर आई। ठकुराइन के अंतिम संस्कार के साथ ही गांव के उत्तर में बेसहारा गायों के लिए गोशाला का निर्माण शुरू हुआ और इसके लिए जमीन दी राधेश्याम ने। पूरा गांव गोशाला को जोड़ने में जुट गया।

इस नई सुबह की रोशनी पूरी युवा पीढ़ी को आलोकित कर गई। अब गांव में गायों के रंभाने की आवाज बहुत शुभ मानी जाती है। और हां, गाय के गोबर देख राधेश्याम की तरह अन्य युवा भी नाक-मुंह नहीं सिकोड़ते।

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