दिल्ली-वाराणसी टूर : मुख्तसर सा ख्याल, काली घटाएं..खुदा खैर करे

वंदे भारत : यात्रा लाइव

दिलदार दिल्ली…जो एक बार यहां आया वो यहीं का होकर रह गया। अगरचे अलसुबह दिल्ली को सलाम कर हम निकल चुके थे नई मंजिल के लिए, इस बात का इलहाम रखते हुए कि चंद दिनों में दिल्ली की गलियों से फिर रूबरू होना है। शहंशाहों के शहर नई दिल्ली से निकलते वक्त हवाओं की गर्माहट हृदय तक को हिंडोल रही थी। मन में मुख्तसर (छोटा) सा ख्याल था, आगे क्या होगा..। अब तक हमारे ख्यालों से कहीं ज्यादा तेज रफ्तार पकड़ चुकी थी हमारी ट्रेन-वंदे भारत।

स्टेशन पीछे छूटते गए

ये चिपियाना बुजुर्ग स्टेशन है, जहां से हम गुजर रहे हैं। मौसम यहां भी अपने गर्म तेवर त्यागने का नाम नहीं ले रहा। हम ट्रेन की सीट पर दाएं-बाएं अपनी पोजिशन बदलते रहे, पर नजरें टिकी रहीं लगातार अपने गंतव्य पर। सरसराते एक, फिर एक स्टेशन पीछे छूटते गए। अब आगे कुछ राहत की उम्मीद बंध चली थी।

ये अम्बियापुर स्टेशन है

कुछ लम्हा और सरक गया है..सुदूर अनन्त ऊंचाई से निहारता अंबर अपने असीमित होने का सुखद अहसास करा रहा है। बादलों से झरती बूंदों की फुहार धरा से मिलने को अत्यंत आतुर है। महीनेभर की तपिश फौरी तौर पर मद्धम पड़ने को है। उमड़ती-घुमड़ती घटाएं आगामी दिनों के भी शायद शीतल होने का पता दे रही हैं। झूमते दरख़्त उन्मत उमंग का संचार कर रहे थे। नजरों के सामने अब अम्बियापुर स्टेशन था। फिर आशाओं को नए पंख लग गए..।

स्टेशन पर गर्मा-गर्म जलपान

खुले खेतों से लिपटी हरीतिमा की चादर धरती के श्रृंगार को चार चांद लगा रही है। बीच-बीच में जल-थल इलाका, पेड़-पौधों की शाखाओं-पत्तों से शबनम की तरह लिपटीं बारिश की बूंदें मन और हृदय को अंदर से भिगोने लगी हैं। काली घटाएं जैसे हमारे सफर के साथ चल रही हैं। ट्रेन की अनाउंसमेंट बता रही है कि ‘अब कानपुर सेंट्रल स्टेशन आने को है, सब अपने सामान के साथ ट्रेन के गेट तक पहुंच जाएं।’ पर अपना सफर तो और लंबा है। अब भी बाकी है इंतजार..अभी सामने आने को हैं और नए मंजर। पर भूख कह रही है कि पहले उसे शांत करना जरूरी है, अगर सचमुच शांति चाहिए। आगे बढ़ने से पहले हम उतर चुके हैं कानपुर सेंट्रल स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर हल्के जलपान के लिए। गर्मा-गर्म जलपान स्वाद के साथ शरीर की गर्मी को बढ़ा गया। शायद आगे अब फिर गर्मी की बारी थी।

वंदे भारत ट्रेन के भीतर खातिरदारी।

गर्मी की कड़कड़ी और पोखर

यहां से प्रयागराज का इलाका शुरू होता है। दरख्त मौन हैं, हवा खामोश है, गर्मी कड़कड़ी दिखा रही है। ये वही पूर्वांचल का इलाका है, जहां आसपास के कुछ जिलों में पिछले कुछ दिनों में लू और गर्मी से 150 से अधिक लोग जान गंवा चुके हैं। पोखरनुमा छोटा सा तालाब नजर के सामने है, उसमें डोर-डंगर गर्मी मिटाने का असफल प्रयास कर रहे हैं। बामुश्किल उनका पूरा शरीर पानी से तरबतर हो पा रहा..क्योंकि पानी ही कम है।

काशी का इस्तकबाल

प्रयागराज कब पीछे छूट गया, पता ही नहीं चला। साक्षात महादेव की नगरी काशी यानी वाराणसी अब इस्तकबाल को उत्सुक है। यहां पतितपावनी गंगा बहती हैं। इन्हें सदानीरा कहा जाता है। क्या राजा क्या रंक, सबके पाप इसमें धुल जाते हैं। शिवशंकर की जटाओं से निकलीं गंगा कुछ अच्छा करेंगी, ऐसा मेरे मन में भाव आता है..घड़ी जल्द ही दोपहर के दो बजाने वाली है। इस बीच धूप और बादल की आंख-मिचौली में बादल प्रबल होकर निकले हैं। आसमान में अचानक फिर से काली घटाएं घिर आई हैं। वंदे भारत ट्रेन से फिर अनाउंसमेंट होने लगी है’..कुछ ही देर में हम अपने डेस्टिनेशन वाराणसी जंक्शन पर होंगे।’ अब तक बादल हमसे चार कदम आगे निकल चुके हैं..शायद टूटकर बरसने के लिए। वंदे भारत ट्रेन का ब्रेक लग चुका है, मतलब विश्व की प्राचीन धर्म नगरी वाराणसी का स्टेशन आ चुका..अब हम प्लेटफॉर्म से स्टेशन के बाहर की तरफ आगे बढ़ चले हैं जीवनदायिनी गंगा और दुनिया का विष हरण करने वाले शिवशंकर की दुआओं के साथ..काली घटाएं फिर मेरे आगे-आगे चल रही हैं..खुदा खैर करे..।

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